धर्म और मुक्ति - Religion and Liberation
शिप्रा नदी के पास बसे एक गांव से एक पंडित रोज नदी को पार कर उज्जैन शहर मे रहने वाले एक धनी सेठ को कथा सुनाने जाता था। पंडित रोज सेठ को कथा सुनाता और बदले में सेठ उसे धन दान देता। ऐसे ही एक दिन जब वह पण्डित सेठ को कथा सुनाने के लिये नदी को पार करके जा रहा था तो उसे एक आवाज सुनाई दी - "कभी हमें भी ज्ञान दे दिया करो।"
पण्डित ने इधर-उधर देखा मगर उसे वहां कोई दिखाई नही दिया। उसे फिर अपने पास से ही एक आवाज सुनाई दी - "पण्डित जी मैं यहाँ हूँ।" पण्डित ने देखा कि वह एक घड़ियाल था। पण्डित जी हैरान भी थे घड़ियाल को इंसान की आवाज में बोलते सुनकर और घबराये भी थे। घड़ियाल ने कहा - "पण्डित जी आप डरिये नही आप मुझे कथा सुनाकर ज्ञान प्रदान करे और यह सब मैं मुफ्त में भी नही मांग रहा हूँ। आपकी कथा के बदले में रोज आपको एक अशर्फी मैं दिया करूंगा।"
पण्डित ने इधर-उधर देखा मगर उसे वहां कोई दिखाई नही दिया। उसे फिर अपने पास से ही एक आवाज सुनाई दी - "पण्डित जी मैं यहाँ हूँ।" पण्डित ने देखा कि वह एक घड़ियाल था। पण्डित जी हैरान भी थे घड़ियाल को इंसान की आवाज में बोलते सुनकर और घबराये भी थे। घड़ियाल ने कहा - "पण्डित जी आप डरिये नही आप मुझे कथा सुनाकर ज्ञान प्रदान करे और यह सब मैं मुफ्त में भी नही मांग रहा हूँ। आपकी कथा के बदले में रोज आपको एक अशर्फी मैं दिया करूंगा।"
पण्डित को बात जची। पण्डित को तो धन की चाहत थी फिर चाहे वो उसे नदी के उस पार सेठ को कथा सुनाने से मिले या नदी के इस किनारे घड़ियाल को कथा सुनाकर मिले। रोज वह पण्डित घड़ियाल को कथा सुनाता और रोज घड़ियाल पण्डित को एक अशर्फी बदले में देता। इस प्रकार काफी दिन बीत गये।
एक दिन जब पण्डित घड़ियाल को कथा सुना चुका तो घड़ियाल ने उसे कहा - "पण्डित जी अब मेरा मन कर रहा है कि मैं त्रिवेणी जाऊं, मेरा समय अब आ चुका है। अगर आप भी मेरे साथ त्रिवेणी आना चाहें तो आपका स्वागत है वर्ना यह अशर्फियों से भरा घड़ा लो और अपने घर जाओ।"
पण्डित ने थोड़ी देर कुछ सोचा फिर उसने त्रिवेणी जाने में अपनी असमर्थता बताई और अशर्फियों से भरा घड़ा लेकर वापस घर जाने के लिये घड़ियाल से विदा की अनुमति मांगी। घड़ियाल ने पण्डित को विदाई दी और जब वह घर जाने के लिये मुड़ा तो घड़ियाल जोर से हंसा। पण्डित को यूं घड़ियाल के हंसने पर हैरानी हुई और उसने घड़ियाल से उसके हंसने का कारण पूछा। घड़ियाल ने कहा - "पण्डित जी आप वापस अपने गांव जाकर मनोहर धोबी के गधे से मेरे हंसने का कारण पूछ लीजिये।"
पण्डित को घड़ियाल के इस जवाब से बड़ी हैरानी हुई, 'मनोहर धोबी के गधे से पूछे ?' वह निराश मन से वापस घर लौटा। दो तीन दिन तक वह बड़ा उदास रहा, 'घडियाल ने ऐसा कहा क्यूं ?' एक पण्डित किसी से पूछने जाये और वो भी किसी गधे से यह कैसे हो सकता है ? पण्डित का अहंकार ही यही है कि वह सब जानता है इसलिये किसी से भी पूछने वह जाये कैसे ?
इसी कश्मकश में वह अपने आप को रोक न पाया और मनोहर धोबी के गधे से घड़ियाल के हंसने का कारण पूछा। गधे ने कहा - "पण्डित जी ! पिछले जन्म में मैं एक राजा का वज़ीर था। राजा मुझे अत्यन्त स्नेह करते थे।
राजा मुझे हमेशा अपने साथ रखते अपने जैसे भोजन और वस्त्र इत्यादि उपलब्ध कराते। एक दिन राजा ने मुझसे कहा- "वज़ीर मेरा मन करता है कि मैं त्रिवेणी घूम आऊँ, क्या अच्छा हो कि तुम भी हमारे साथ चलो"
इस प्रकार हम दोनो त्रिवेणी के लिये निकल पड़े। त्रिवेणी का रमणिक स्थान राजा को खूब पसंद आया और इस प्रकार हम वहां करीब एक महीने तक रहे।
एक दिन राजा ने मुझसे कहा- "वज़ीर मेरा तो मन अब यहाँ लग चुका है और मैं यहीं रहना चाहता हूँ। अगर तुम्हारा भी मन करे तो मेरे साथ यहीं रहो वर्ना यह हीरे मोतियों से भरा घड़ा लो और देश लौट कर राज करो।"
मैने वह घड़ा लिया और वापस आकर राज करने लगा। इस कारण इस जन्म में मैं गधा हुआ। इसलिये घड़ियाल हंसा।
पण्डित जी खाली उधार और शाब्दिक ज्ञान कहीं काम नही आता। अब आप देखिये की आपका ज्ञान आपके ही काम न आ सका तो भला किसी और के क्या काम आयेगा ?
"ज्ञान तो आदमी को मुक्त करता है। जिसे तुम ज्ञान समझते हो वह केवल उधार शब्द तुमने इकट्ठा कर लिये हैं जो खाली तुम्हारे मत हैं धर्म नही और मत आदमी को बाँधता है मुक्त नही करता।"
।। जय जय श्री राधे ।।
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