भगवान विष्णु भक्त नारद मुनि - Lord Vishnu Devotee Narad Muni
एक बार नारद मुनि पृथ्वी का
भ्रमण कर रहे थे। तब उन्हें उनके एक खास भक्त जो नगर का सेठ था ने याद
किया। अच्छी सत्कार के बाद सेठ ने नारद जी से प्रार्थना की- "आप ऐसा कोई
आर्शीवाद दें कि कम से कम एक बच्चा हो जाए।"
नारद ने
कहा कि तुम लोग चिंता न करो, मैं अभी प्रभु नारायण से मिलने जा रहा हूं। उन तक
तुम्हारी प्रार्थना पहुंचा दूंगा और वे अवश्य कुछ करेंगे। नारद विष्णु धाम गए और सेठ की व्यथा बताई। भगवन् बोले कि उसके भाग्य में
संतान सुख नहीं है इसलिए कुछ नहीं हो सकता।
उसके कुछ समय
बाद नारद ने एक दीये में तेल ऊपर तक भरा और अपनी हथेली पर सजाया और पूरे
विश्व की यात्रा की। अपनी निर्विघ्न यात्रा का समापन उन्होंने विष्णु धाम
आकर ही संपन्न किया। इस पूरी प्रक्रिया में नारद को बड़ा
घमंड हो गया कि उनसे ज्यादा ध्यानी और विष्णु भक्त कोई ओर नहीं। अपने इसी
घमंड में नारद पुनः पृथ्वी लोक पर आए और उसी सेठ के घर पहुंचे। इस दौरान
सेठ के घर में छोटे-छोटे चार बच्चे घूम रहे थे।
नारद ने
जानना चाहा कि ये संतान किसकी हैं तो सेठ बोले- "आपकी हैं प्रभु।" नारद इस बात से
खुश नहीं थे। उन्होंने कहा- "क्या बात है, साफ-साफ बताओ।" सेठ
बोला- "एक साधु एक दिन घर के सामने से गुजर रहा था और बोल रहा था कि एक
रोटी दो तो एक बेटा और चार रोटी दो तो चार बेटे। मैंने उन्हें चार रोटी
खिलाई। कुछ समय बाद मेरे चार पुत्र पैदा हुए।"
नारद
आग-बबूला हुए और विष्णु की खबर लेने विष्णु धाम पहुंचे। नारद को देखते ही
भगवान अत्यधिक पीड़ा से कराहने लगे। उन्होंने नारद को बोला- "मेरे पेट में
भयंकर रोग हो गया है और मुझे जो व्यक्ति अपने हृदय से लहू निकाल कर देगा
उसी से मुझे आराम होगा।" नारद उलटे पांव लौटे और पूरी
दुनिया में भगवान विष्णु की व्यथा सुनाई, पर कोई भी आदमी तैयार नहीं हुआ। जब नारद
ने यही बात एक साधु को सुनाई तो वो बहुत खुश हुआ, उसने छुरा निकाला और एकदम
अपने सीने में भौंकने लगा और बोला- "मेरे प्रभु की पीड़ा यदि मेरे लहू से
ठीक होती है, तो मैं अभी तुम्हें दिल निकालकर देता हूं।"
जैसे ही साधु ने दिल निकालने के लिए चाकू अपने सीने में घोपना चाहा, तभी भगवान विष्णु वहां प्रकट हुए और बोले- "जो व्यक्ति मेरे लिए अपनी जान दे सकता है, वह किसी व्यक्ति को चार पुत्र भी दे सकता है।" साथ ही नारद से यह भी कहा कि "तुम तो सर्वगुण संपन्न ऋषि हो। तुम चाहते तो उस सेठ को भी पुत्र दे सकते थे।" नारद को अपने घमंड पर पश्चाताप हुआ।
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